स्त्री के सारे रंग रोगन,
प्रज्ञा
अचल आँचल नयन दर्पण,
खिलखिलाया आंगन तुमसे
धूप खिली तुम्हारे स्मित से -प्रज्ञा

महिला दिवस की शुभकामनाएं
कंटेंट लिखने की मेरी शुरूआत कक्षा दस के प्रश्नपत्र हल करने से शुरू हुई थी, कविताएँ याद नहीं रहतीं तो किसी निबंध वगैरह में अपना ही बना बना कर लिखती थी। बढियाँ नंबरों टान लिए थे, मतलब अच्छा ही लिखे होंगे।
ऐसा कुछ करते रहना भी ज़रूरी है जो बिना मतलब हो
बस इसलिए करना है कि अच्छा लगता है ♥️
प्रस्तुत हैं मेरी कुछ क्षणिकाएं
वो कैसी दिखती थी
एक लम्बी प्रतीक्षा जैसी
चिर परिचित लेकिन
बरसों की दूरी पर
जैसे राग बिहाग
बिरही का मॉडर्न अवतार
शॉपिंग मॉल में बैठी
अन्यमनस्क कादम्बरी सी
बसन्त का उन्वान दिखती थी - प्रज्ञा
गूँज पर चित्र रचना प्रतियोगिता में एक प्रयास
उलूक प्रतीक्षारत है
कि सिमटी विटप शाखाओं से
पद्मा हरिप्रिया धरती की वन्दनीया
उड़ कर दूर जाना चाहती है
झूठी पूजा अर्चना से। -प्रज्ञा
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