
ये यादों की खिड़की है। इसके पल्ले पुराने ढंग के है। ये बिना आवाज़ किये नहीं सरकती । दोनों हाथ लगते हैं और अंदर से खुलती है। बहुत सारे छोटे शहरों में है। बड़े शहरों के पुराने उम्रदराज़ इलाकों में पाई जाती है जिनमें होनहार बाहर-गाँव गए हैं। गाँवों में ईंट का पक्का मकान बिना पलस्तर के दसियों साल इसके पल्ले पर आकर खड़ा हुआ है ।
कोई बाल नहीं बनाती यहाँ खड़ी हो अब, लेकिन नीचे खड़ा लड़का रुक कर देख कर जाता है।
एक औरत जिसे दोपहर में अखबार तक पढ़ने की आदत नहीं थी वो यहाँ से गाड़ियों का आना जना देखती थी।
एक बच्चा आधा लटका रहता था इस पर किताबों से भाग कर गली के अनजान लोगों में पैटर्न ढूंढ़ने के लिए।
ये खिड़की लाऊड स्पीकर थी। यहाँ से चिल्लाने भर से भरी गली में काम का आदमी पलट कर हामी भर देता था।
इस पर आँखों इशारों से काम होते थे।
तनाव में धक्के से खुलती थी, थोड़ी नकारत्मकता इसकी लकड़ी सोख लेती । कहती थी कल सूरज को दे दूँगी वो जलता रहता है जलन पचती है उसे।
खिड़की धूप में बेरंग होती गयी। थोड़ी फीकी थोड़ी मटमैली होती गयी।लकड़ी फूल जाती है , सिकुड़ जाती है, अब पहले की तरह हिंज जगह पर नहीं मिलते । थोड़ा एडजस्ट करने पर ही बन्द हो।
बेजान हुई तो क्या मरम्मत मरम्मत तो खिड़की को भी लगेगी, यादों में जाले बड़े जल्दी लगते हैं। हमें लगता है हम बराबर सफाई करते रहे लेकिन जाला उधर से भी लगा होता है जहाँ हाथ नहीं पहुचंते ।
कयी सालों बाद जब पीसा जी से बात हुई थी। उन्होंने कहा था, क्यों प्राची “हम याद हैं न की भूल गयी पीसा जी को” । मैं हँस कर रह गयी क्योकि मैंने उन्हें कभी बताया ही नहीं वो मेरे जीवन में सुने पहले दास्तानगो हैं उनकी गर्मी की छुट्टियों में सुनाई भूत की कहानियाँ जो जमशेदपुर से राँची हाइवे के बीच की मनगढ़ंत घटनाओं के बुने ताने बाने थे मैं अब तक उसी हाव भाव में बच्चों को सुनाती हूँ। मुझे केवल वे ही कहानियाँ आती हैं।
तस्वीर साभार – उज्जैन की गलियों से ।
Pragya Mishra
👏👏👏👏👏👏👌👌👌👌👌🙇🙇🙇🙇
LikeLike
क्या बात है👌💐
LikeLiked by 1 person
ध्न्यवाद भावना
LikeLiked by 1 person
Wow kya baat hai… Jai mahakaal….
Bhaut aacha likha aapne….
LikeLiked by 1 person
बहुत शूक्रिया!
LikeLiked by 1 person