पिता पुल बने रहे पीढ़ियों से
क्रांति के भी रूढ़ियों के भी
प्रेम आरूढ़ रहा
ग्राम्य जीवन की तरह
क्रांति शहरों में बस कर
नए पन में ढल गई
याद आता रहा ग्रामीण अंचल
मां के आंचल की तरह
जिसमें आम के पेड़ थे
लीची भरी डालियाँ थीं
नींबू आमले संतरे के वृक्ष
बेल पत्र से आच्छादित
एक बड़े हृदय का नन्हा आंगन था
जिसके कोनों में लाल महावर लगाए
दिशाएं आशीष देती थीं और
पिता का दुलार भरा था।
-प्रज्ञा मिश्र ‘पद्मजा’
हैप्पी फादर्स डे ❤️

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