Gehraiyaan फ़िल्म देखने के बाद मेरे विचार
इस फ़िल्म के लिए सीधे तौर पर परिधान और अनावश्यक सीन पर टीका टिपण्णी के साथ कुछ लोगों ने पूरी फिल्म को बेकार ठहराया है।
जबकि मेरे विचार इससे थोड़े अलग हैं, स्लाइस ऑफ लाइफ से सच और कहानी के बीच का सामंजस्य बना कर प्रस्तुत की गई यह फ़िल्म सम्भ्रांत तबके की समस्याओं के माध्यम से मानव मूल्यों के विघटन को प्रस्तुत करती है जो हमारे आस पास भी घटित हो सकता है। कपड़े और फलाँ सीन से मुझे कोई आपत्ति नहीं, मेरे विचार से फ़िल्म के मैसेज के आगे यह सुपरफिशियल है।
जहाँ तक मेरी समझ कह रही, लोग #गहराइयां को इसलिए बुरा बोलेंगे क्योंकि लोग अपने लाइफ में वही बातें आस पास घटित होता देख रहे हैं, मानवीय मूल्यों का ह्रास हमारे समाज की सच्चाई है। लोग खुद ऐसी स्थितियो में पड़ जा रहे हैं और इससे डील करना नहीं जान रहे। फ़िल्म में दिखाए किरदार और आर्थिक परिवेश भले अलग हों, लेकिन परतें वही हैं।
जो दाल रोटी की जुगत में दिन रात लड़ रहे हों उनसे ऐसी फिल्मों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आएगी, उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए, यह पहली और दूसरी दुनिया की समस्याओं पर बनी फिल्म है तीसरी दुनिया से सिर्फ रिलेशनशिप टैबू लिए गए हैं।
जो अपने आस पास के समाज से कहानियां बुन रहे लिख रहे हैं या उन्हें जी रहे हैं, वे समझ पायेंगे कि इस तरह ज़ेन, उसकी मंगेतर और प्रेमिका जिन परिवेश में पड़ रहे वैसी घटनाएं गांव और शहर दोनों में घट सकती हैं और घटी भी हैं। आदमी आदर्श वाद की थाती नहीं है। असलियत फ़िल्मों से कहीं ज़्यादा डरावनी होती है।
आप फ़िल्म में उतपन्न साम्य पर गौर करें, समुद्र में उठती गिरती लहरों का दिखाया जाना और विवाह के लिए हाँ करने में असमंजस में पड़ी लड़की का चेहरा रुंआसा हो जाना।माँ के साथ हुई बातें याद करते हुए समानांतर अपनी आप बीती जीना।
दोनों लड़कियाँ अपने पास्ट से जिस मैच्योरिटी के साथ डील करने के लिए तैयार दिखाई गयीं हैं यह होता है आज, ऐसा करते हैं लोग, यह कोई आसमान से टपका ख़्याल नहीं है। लेकिन अगर आप एकदम बंद दिमाग स्त्री पुरुष से इसपर राय लेने चल दीजिये तो हो सकता है वो “हट, धुर, बकवास बोले” … इट ऑल डिपेंड्स आप कितना सच समझने के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं। गौरतलब है कि अपनी राय देने के लिए सभी स्वतन्त्र हैं, यदि यह फ़िल्म किसी को नहीं समझ आ रही तो इसमें उनकी भी ग़लती नहीं।
बचपन में बसी मन की विकृतियों और डर को हील करने की लगातार कोशिशें करना भी दिखाया गया है। यह आज हर जागरूक समझदार व्यक्ति समझ सकता है कि हमारा व्यवहार, हमारा पूरा व्यक्तिव, हम किस तरह के लोग अपने जीवन मे आकर्षित करते हैं सब कुछ हमारी मानसिक प्रीकंडिशनिंग पर निर्भर करता । दीपिका का कैरेक्टर जिस स्थिति से निकलता है वह सचमें हदस में डाल कर रख दे एक अच्छे भले इंसान के जीवन को।
ज़ाहिर तौर पर इससे यह भी समझ आता है कि आकर्षण दिन और सम्बंध देख के नहीं आता। भारतीय समाज के समझ से भले बाहर हो लेकिन अनुभव से बाहर की बात नहीं। प्लेटोनिक प्रेम की बातों को ताखे पर रख दें असल जिंदगी के झगड़े झंझट में यह कब का मर गया है।
उस पर से सेक्स प्रतिबंधित समाज में पले बढ़े लोगों का अनचाही प्रेग्नेंसी से इज़्ज़त चले जाने वाला डर जिससे कोई वर्ग अछूता नहीं है। वेस्ट के समाज की औरत की तरह हमारे समाज की औरत अनचाहे गर्भ को या गर्भ गिरा देने के निर्णय को पूरी मैच्योरिटी से धारण नहीं कर पाती । इससे इतर आपसी सम्बंध से मिलने वाले आर्थिक लाभ पाने फिर होने वाले घाटे से उतपन्न होने वाली विकृतियाँ, मानसिक त्रास, आपसी रिश्तों को कैसे कैसे भँवर में डाल सकता है यह सब फ़िल्म में देखते हैं हम।
कई बार होता है कि दो लोगों के बीच अब प्यार कहीं नहीं है , अब लोग अपनी गट फीलिंग के आधार पर अच्छा या बुरा महसूस करते पाए जाते हैं और सिचुएशन से भाग जाना चाहते हैं या अपने कंट्रोल में कर लेना चाहते हैं। ऐसे में गलतियाँ कर बैठते हैं।
यहाँ सारा चित्रण एक सम्भ्रांत परिवार को लेकर हुआ है, पर यह किसी भी वर्ग के साथ हो सकता है। इसमें किसी का भी कैरेक्टर आदर्श की तरह प्रस्तुत करने की कोशिश नहीं की गयी है। ह्यूमन फ़्लॉस हैं सबके भीतर, सब एक बहाव में जीते हैं, उनसे गलतियाँ होती हैं, कोई उन गलतियों से बाहर आना चाहता है तो कोई अपनी गलतियाँ छुपाने के लिए और अपराध का रास्ता ले लेता है।
मानवीय और सामाजिक मूल्यों का ह्रास और शहरी जीवन की विकृतियाँ, लाभ और सुविधाओं के सम्बंध और दुःख विप्पति में क्षण भर में टूटन, अहंकार, स्टेटस बचाये रखने की झड़प, सारे कुठाराघात हैं इसमें।
सेक्स हो जाना, गर्भ ठहर जाना ग़लती नहीं है, ग़लती है, धोखा देना, अपने स्वभिमान को न सुनना , सच न बताना और जुर्म का रास्ता लेने की कोशिश करना। यह किसी के भी जीवन में हो सकता है खास कर एकल शहरी सम्भ्रांत जीवन में।
प्रज्ञा मिश्र