द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
आज ऑफिस में फन एट वर्क का आयोजन हुआ। मैंने साड़ी विशेष रूप से सोशल कार्यक्रम के लिए पहनी । ऑफिस में ऑनलाइन खेल खेले गए, रैपिड,फायर राउंड्स हुए, श्रीवल्ली ने तेलुगु में लोक भजन गाया, समर्पिता ने शेप ऑफ यू के फ़्यूज़न पर भरतनाट्यम किया, बहुत सुंदर। मैंने भी अपनी भागीदारी दी। फिर शाम के बाद सोसायटी के स्टॉल की भीड़ का आनंद लेने चली गयी।
पहले के वर्षों में कुछ भी हो जाये मैं 9 दिन व्रत करती और साड़ी रोज़ पहनती । धीरे धीरे ये प्रण कमज़ोर होता गया। ज़िम्मेदारियाँ बढ़ीं , फ़िर मम्मी जी भी आजकल साथ नहीं हैं, उनके होने से बहुत बातें सोचनी नहीं पड़ती थी। धर्मानुकूल सभी काम उनके रहने से होते रहते थे। कैसे करना है यह दिमाग नहीं लगाना पड़ता था, सभी तैयारियां वे ही करतीं। कहती थीं कि आपको सोचना चाहिये।
व्यक्तिगत रूप से मेरा मन, पूजन साधन जुटाने में अब उस तरह नहीं लगता जैसे पहले लगता था। शायद कभी नहीं लगता था, मम्मी जी ही कर देती थीं तो होता था। अपने स्तर से मैंने बस अगरबत्ती दिया लगा कर केवल पाठ किया। बचपन में कलश और उसके अगलबगल उगी जौ मोहती थी, उसी मोह में कलश बैठाया भी पर ठीक उतने ही साल जितने साल मम्मी जी रहीं।
अब उस तरह समय भी नहीं मिलता। वैसी छुट्टी ज़िन्दगी में जाने क्यों नहीं रही जो 2018 से पहले हुआ करती थी। पर सप्तशती का पाठ करती हूँ।
ईशा ने तस्वीर भेजी है। माता की प्यारी सी चौकी पर फूल से स्वस्तिक बनाया उसने। ईशा सब अकेले कर लेती है।
आज सोसायटी में माता की आरती से पहले मैंने वहीं स्थली पर जाकर पाठ कर लिया फिर दादी माँ को याद कर मन की तसल्ली की।
सोसायटी में स्टॉल लगा था। मेरठ का दही बड़ा था। नाचोज़ चीज़ की डिश थी। इन्नर मिठाई थी। गुलाबजामुन और मिसल पाव भी। हमने सबने धीरे धीरे कर के वहीं भर पेट खा लिया। इस साल कितने सालों में ऐसा पहली बार है कि मैंने व्रत नहीं रखा, अष्टमी को रखूँगी।
आज अंताक्षरी प्रतियोगिता थी। मुझसे अश्वविनी ने पूछा ,”प्रज्ञा आपने नाम नहीं दिया” मैंने थोड़ी देर सोचने के बाद झटके में सोचा, हाँ यार मैंने अंताक्षरी में नाम क्यों नहीं दिया। मेरे भीतर से कोई आवाज़ नहीं आयी। मेरी चौंक मेरे चेहरे पर धराशायी हो गयी।
आज की साड़ी जेठानी जी का गिफ़्ट है, उनके बेटे ईशान के मुंडन पर भेंटस्वरूप मिली थी। इसे जैधी सोमा की शादी में पहली बार निकाला। स्त्रियों को कुछ साड़ियां इसलिए भी पसंद होती हैं कि वे पहनने में आसान होती हैं, प्लीट्स बैठने के बाद छछहलती नहीं। मुझे यह साड़ी पसंद है इसका महीन काम भी।
पूर्णियाँ में ,दादी माँ सुबह की सैर से आ कर बिस्तर पर बगल में एक गुलाब रखती थीं। वो दुर्गापूजा का समय होता था। हल्की ठंड घिर चुकी होती थी। पिंक बैंगनी रंग की मिंक ब्लैंकेट से निकलना सुबह सुबह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था । लेकिन उसमें दादी माँ का प्यार से आकर, गुलाब रखना एक सपने देखने जैसा लग रहा है अब। वो बहुत पढ़ती थीं। इसलिए उन्हें रिश्तों में प्रेम की अभिव्यक्ति की ताकत का बहुत सही अंदाज़ा था। वो रेगिस्तान में मरुद्यान जैसी थी जहाँ सबके लिए खाना पानी और ठंडक कभी समाप्त नहीं होगा। दुर्गा पूजा पर मेरी दादी माँ को याद करना बेहद सार्थक लग रहा है। एक देवात्मा जिनकी छाती से चिपक कर मैं कितनी रात सोई हूँ । ये मेरी खुश नसीबी है। शायद ईशा और गुनगन भी ऐसा ही लिखेंगी अपने हिस्से की दादी माँ की यादों के लिए ।
8 Oct 2021
