कुंभी काश खजूर जिलेबी प्रकृतिक अनुपम भेंट
नील गगन अछि सबहक झाँपन बान्ही बातक गेंठ।
-मणिकांत झा, दरभंगा,६-१०-२१
Manikant Jha
भावार्थ विस्तार –
कुंभी, कास, खजूर, जलेबी प्रकृति के अनुपम भेंट हैं। नीला आकाश सब की एकछत्र रक्षा करता है, सबके लिए एक छत है, ढंक कर रखता है, यह बात सभी को गाँठ बाँध लेनी चाहिए।
तस्वीर में दिखाई गयी जगह दरभंगा की है। सम्भवतः मणिकांत अंकल ने ही यह तस्वीर निकाली होगी, जिसमें जल कुंभी, बरसात के बाद उगे कास के खड़ , जलेबी का पेड़ दिखाई दे रहे हैं –
बरसात के बाद ऐसा अक्सर पढ़ने में आता है कि
घास चुप है
कास चुप है
बारिशों के मौसम का जाना प्रकृति को नहीं अच्छा लगता। बरसात की बूंदें आसमान से करुण रस की कविता जैसे उतरती हैं जिससे धरती की छाती में सूख कर फट चुके दुःख नम होकर भरने-पिघलने लगते हैं। स्वभाव का अजनबीपन शुष्कता, प्रेम की आर्द्रता ओढ़ लेता है।
बिहार जैसे क्षेत्र में जहां सबसे कम औद्योगिकरण हुआ है वहाँ प्रकृति अपने मूल रूप में मिलती है। गरीबी है , लेकिन अभाव के कारण आने वाली कटुता पर लोक-गीत व्यवहार आचार विचार जीत पा लेते हैं और प्रकृति के सान्निध्य में गुँथी हुई संस्कृति खुद को बचाये रख पाती है।
औद्योगिक रिनेसाँ ने दुनिया को इस्पात के जंगल, प्लास्टिक की अमरता, हवा में ज़हर, मरते जलजीव, महामारी, विस्थापन , अकाल मृत्यु, अजनबीपन, पागलपन, पुरानेपेट के लिए नए कचरे, मोटापा, डायबिटीज़, कैंसर, ग्लोबल वार्मिंग, बढ़ता हुआ चक्रवातीय तूफान, हथियार, असमय मरते हुए परिजनों का संताप दिया है।
इसलिए जैसे बारिश, धरती की आशा है वैसे ही भारत की लोक संस्कृति भारतीय सभ्यता की आशा है।
Pragya-प्रज्ञा की रचनाएँ Pragya Mishra Shatdalradio Radio Playback India
