28 अगस्त 1896 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्मे रघुपति सहाय, को उनके सहित्यिक नाम फिराक गोरखपुरी के नाम से जाना जाता है।

फ़िराक़ गोरख पुरी साहब को उनकी उर्दू शाइरी के लिए याद किया जाता है जो समय की कसौटी पर खरी उतरी। हालाँकि, उर्दू शायरी के इस महानायक के बारे में जो बात कम ही जानी जाती है, वह यह है कि वे अंग्रेजी के भी उस्ताद थे और लम्बे समय तक इलाहाबाद विश्विद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक थे।

फ़िराक़ गोरखपुरी साहब जनसाधारण की भाषा और सबसे आसान भाषा में रचना करने को असल माइने में बड़ा साहित्य मानते थे। उनका कहना था कि एक बच्चे को जो शब्द आते हों रचनाकार को उतने शब्दों में गीता लिखने बराबर हुनर होना चाहिए तब बनती है कालजयी रचना।

भाषा और साहित्य का ऐसा शोधपरक दुलर्भ ज्ञान समाहित था उनके भीतर की भाषा और शब्द के उठान पर घन्टों चर्चा कर जाते । भाषा के संदर्भ में उन्होंने दूर्दशन को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि

भाषा का base , illiteracy है और literature कहते हैं, brilliant illiteracy को। - फ़िराक़ गोरखपुरी

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वे मानते थे कि भाषा का असल विकास अनपढ़ लोक जनमानस के द्वारा हुआ कि उन्होंने भले संस्कृत न पढ़ी हो पर आनुवंशिकी में संस्कृत उनके भीतर मौजूद थी और वे शब्दों का सृजन, शब्दों में जमा का बोध आदि अनायास ही कर डालते थे। वे अपने विचारों में व्यक्त करते रहे कि साहित्य वही सुंदर जो घर कामवाली को भी वैसे ही समझ आये जैसे कि हाकिम को।

फ़िराक़ गोरखपुरी साहब का व्यक्तित्त्व उनकी शायरी से भी बड़ा था जो वे खुद भी कहते कि शायर को अपनी शायरी से बड़ा होना चाहिए।

लेखन में उर्दू और हिंदी के बीच सेतु का काम करते हुए वे मीर और ग़ालिब के ओहदे के शायर कहलाये। खरी बात करने वाले , सहज, मिलनसार फ़िराक़गोरखपुरी साहब संस्कृत , फ़ारसी के भी बड़े ज्ञाता थे। उन्होंने गंगा जमुनी तहज़ीब को जिया और उसे बढ़ावा दिया।

फ़िराक़ गोरखपुरी साहब के जन्मदिन पर संस्कृत निष्ठ हिंदी को लेकर स्वांग करने वालों को ये बात समझनी होगी कि कोई शब्द कहाँ से आया ये इतिहास उसकी बुनियाद है लेकिन यदि नया शब्द जन्मकर बड़ा हो गया तो यह समय की मांग है, change is the only constant.

संस्कृत के भ्रातृ से भाई , ब्रदर दोनों शब्द उतपन्न हुए। “हिंदी चीनी भाई भाई ” और “हिंदी चीनी भ्रातृ भ्रातृ” के प्रयोग की मूल संवेदनात्मक सम्प्रेषणीयता से फ़िराक़ साहब इस सत्य को समझाने का प्रयास करते है कि बदलाव और समय के साथ नए को स्वीकारना यह दोनों प्राकृतिक रूप से घटित होते हैं।

भारतीयता की बुनियाद गहरी है, उसपे सांस्कृतिक विविधता के घर पे घर खड़े किए जा सकते हैं, पर दुनिया को सफाई देने और दिखाने के लिए बुनियाद ही खोदनी शुरू की जाये तो घर घर ढह सकते हैं।

भाषा का समन्वय होता रहे, यह जितना हो उतना अच्छा रहेगा कोई बन्द कमरा ताज़ी हवा नहीं रखता , बन्द कर दुर्गन्ध से भर जाता है।

शब्दों का घाल मेल , भाषायी ताल मेल बना रहे, जिस भाषा परिवार में जो अच्छा है सब लेना लिवाना बना रहे यही चाहिये, ऐसे ही बढ़त होगी, बरकत होगी।

किसी भी भाषा के प्रति आंखें बन्द करने से अपनी ही आँख बन्द होगी , हिंदुस्तानी में उर्दू और हिंदी के साथ होने से जो रौनक है वो सबके लिए है। जो नहीं देखना चाहता उसके लिए तो वैसे ही नहीं होगी।

प्रज्ञा मिश्र ‘पद्मजा’

पढ़िए उनके कुछ प्रचलित शेर अमर उजाला काव्य से साभार

आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के लिए नई राह बनाने वाले शायर फ़िराक़ गोरखपुरी के अशआर 

फ़िराक़ ने अपनी शायरी से एक पीढ़ी को प्रभावित किया, नई शायरी के प्रवाह में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और हुस्न-ओ-इश्क़ का शायर होने के बावजूद इन विषयों को नए दृष्टिकोण से देखा। उनका सौंदर्य बोध दूसरे तमाम ग़ज़ल कहने वाले शायरों से अलग है।

इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में 
ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात 

तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो 
तुम को देखें कि तुम से बात करें 

न कोई वा’दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद 
मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था 

ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त 
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में 

तेरे आने की क्या उमीद मगर 
कैसे कह दूँ कि इंतिज़ार नहीं 

आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में ‘फ़िराक़’ 
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए 

बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा’लूम 
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई 

खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही 
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है 

कोई आया न आएगा लेकिन 
क्या करें गर न इंतिज़ार करें 

मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन 
तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है 

देवताओं का ख़ुदा से होगा काम 
आदमी को आदमी दरकार है 

कौन ये ले रहा है अंगड़ाई 
आसमानों को नींद आती है 

सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग 
हम लोग भी फ़क़ीर इसी सिलसिले के हैं 

शामें किसी को माँगती हैं आज भी ‘फ़िराक़’ 
गो ज़िंदगी में यूँ मुझे कोई कमी नहीं 

इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए 
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात 

बद-गुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे 
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं 

‘फ़िराक़’ दौड़ गई रूह सी ज़माने में 
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में 

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