जब भी दिल को कोई धक्का लगता है, हम टूटन और बिखराव महसूस करते हैं, कलम चल पड़ती है, दुःख की चादर ओढ़े रहना कोई अच्छी बात तो नहीं पर बहुत दुःखी दिनों की याद में कुछ लिखना, सुकून की हल्की परत लगती है।

जब कोई अपना किसी बात पर हमें झूठा समझे, हमारा सच मानने को राजी न हो, हमें छोड़ कर चला जाये, अपशब्द कहे , मानसिक संताप दे तब प्राण छटपटाहट में सिकुड़ने लगते हैं।

कभी तो मज़बूत होना होता है, कभी आँसू पोछना पड़ता है। मस्तिष्क जैसे कुहासे में सोचता और डूबता जाता है कि ऐसा भी क्या बिगड़ दिया, हम तो अपनी धुन में थे और वो आये, एक झटके में चार इलेट्रॉनिक संवाद में हमें नीच, स्वार्थी, दिखावटी, बनावटी, नकली, लालची, एहसानफरामोश और न जाने क्या क्या कहकर चले गये और ब्लॉक की ये परंपरा मानसिक उद्वेलन का कटु श्रृंगार कि पराकाष्ठा तो देखिए कि हम तुम्हारे लिए अब मर गए।

हो गी बात आमने सामने, तब भी क्या इतनी नफ़रत दिखा पाओगे सनम, जिन दिनों हम साथ हँस कर मिलते रहे, उनको भुला पाओगे सनम।

इंसान में अच्छाई और बुराई दोनों होती है लेकिन जो उससे भी ऊपर के स्तर का होता है वो है दिमागी वक़ालत वो सबसे क़ातिल चीज़ होती है।

हर रिश्ता हर रिश्ते को जज करने लगता है, “अच्छा तो तुम्हारे दिमाग में ये होगा, इसलिए तुमने वो किय्या, ऐसी बात बोलीं ,यह बात यहाँ ऐसी चलाई, उनके लिए करना है, हमारा तो सोचा नहीं, तुम क्यों सोचोगी, तुम्हारा तो सब अच्छा है, बदल गयीं, चार सेलिब्रिटी क्या देख लिए बड़ा समझने लग गयीं, मक्कार! और न जाने क्या क्या” …

कैसे यकीन दिलाया जाए कि कुछ सख्तजानें भोलेपन में मूर्ख होती हैं, वे सचमें षड्यंत्र नहीं करतीं।

पर गलतियां ?

हम गलतियां तो करते हैं, अजीब सी, यकीन न हो पाए ऐसी सच्ची गलतियां कर बैठते हैं। दिमाग पर अख़्तियार नहीं था, या बस सेल्फ सबोटाज में थे तो सोचा था कि क्या ही फर्क पड़ता है और ऐसे में व्यक्ति अपना बड़ा अहित करता है।

आंकलन करके कदम न बढ़ाने वाले ऐसे नासमझ दिल के अच्छे लोगों को जजमेंट का शिकार होकर अपने आत्मसम्मान, सेल्फ कॉन्फिडेंस पर हमेशा चोट सहनी पड़ती है क्योंकि इन्होंने एक कर्म करने से पहले उसके परिणामों और अन्य लोगों पर उसके पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन ही नहीं किया। दोषी तो ये हुए। पर मामला अब ये है कि दोष की सज़ा कटु शब्दों में आख़िर कब तक। हमेशा ज़िल्लत कब तक।

जाने ये आकर्षण के सिद्धांत की पुड़िया और कितने दिन अपना प्रसाद बांटेगी। कब ये ज़िन्दगी अचानक अचानक मिलने वाली किसी अपने की सरप्राइज़ नाराज़गी और किसी परिजन के गुस्से से आज़ाद हो अपनी राह जाएगी । कब तक औऱ कितना सुनना है ज़िन्दगी से अभी।

क्या बुद्धिज़्म अपना लेने से लोग इस आकर्षण के सिद्धांत से मुक्त हो जाते हैं, क्या वे नोच पाते हैं अपने शरीर से बदनसीबी, बेअक्ली और बेवक़ूफ़ी का चोला।

ऐसे किसी खालीपन से भरे समय में शिव बटालवी याद आते हैं, उनको सुनना अच्छा लगता है।

खुद को बुराई में लिप्त न पाते हुए भी हर तरफ से बुरा सुनने वालों पर क्या बीतती होगी।

शिव उनकी रचना में बिरहा दा सुल्तान हैं, पीरा दा परागा लिखते हैं , जोबन रहते चले जाने को स्वर्गवास कहते हैं। शिव को कोई वरदान था कि वो आने वाली नस्लों औऱ पीढ़ियों का बेगानापन ढोती रूहों का मददगार बनेंगे । शिव जल्दी चले गये। चल फरिश्ते काम हो गया चौंतीस में चलता बन तेरी इतनी ही ज़रूरत थी और शिव चले गए। शिव अधूरे ही गए। शिव का शाप है शिव का अधूरेपन। ये अधूरापन और साथी की तलाश सबका अधूरापन है। मिली नहीं थी ना शिव को भी संगिनी उनकी। जले थे पीड़ा में लेकर उसके मांस का लोथड़ा भटके तीनों लोकों में। बिरहा के शिव , बिरहा शिव का शाप।

नीचे Roman Font में शिव बटालवी की मरहमी रचना इस ब्लॉग ने संलग्न कर रही हूँ, पँजाबी लीरिक और अंग्रेज़ी अनुवाद इंटरनेट पर ही मिला है , हिंदी अपनी समझ मुताबिक अनुवादित कर दी है मैंने। किसी के तो काम आएगी। सबके भोगे हुए दुख , सुख की चाहत में दवा खोजते हैं, किसी को मिल जाता है कोई ताउम्र भटकता जाता है। ये ब्लॉग भी एक भटकती रेगिस्तान ही है अब और सच छुपाया भी नहीं जाता है।

Aj Fer Dil GareeB Da

Aj fer dil gareeb ik paaNda hae vaasta,
De ja meri kalam nu ik hor haadsa.
ik hor haadsa.

आज फ़िर एक गरीब दिल तुझे देता है वास्ता, दे जा मेरी कलम को एक और हादसा

{Today this poor man begs you again,
For the sake of my pen, give me another tragedy.}

Mudat hoi hae dard da koi jaam peeteyaaN,
PeeRaaN ‘ch haNju ghol ke, de ja do aatasha.
De ja meri kalam nu ik hor haadsa.
ik hor haadsa.

मुद्दत हुई है दर्द का जाम पिये हुए, पीड़ा के आँसू घोल कर आतिश पिये हुए


Aj fer dil gareeb ik paaNda hae vaasta,
De ja meri kalam nu ik hor haadsa.
ik hor haadsa.

{It has been an age since I have drunk the wine of pain,
Mix tears into it, make it twice as fierce.}

Kaahgaz di kori reejh hae chup chaap vekhdi,
ShabdaaN de thal ‘ch bhaTakda geetaaN da kaafila.

कोरे कागज़ की कोई रीझ चुप चाप देखती है, शब्दों के काफ़िले को रेगिस्तान में भटकते हुए


De ja meri kalam nu ik hor haadsa.
Aj fer dil gareeb ik paaNda hae vaasta,
De ja meri kalam nu ik hor haadsa.
ik hor haadsa.

{This blank sheet of paper looks at me silently,
A caravan of songs is lost in a word-desert.}

TurnaaN maeN chaahuNda paer vich kaNDe di lae ke peeR,
Dukh toN kabar tak dosta jinna vi faasala.

चलना चाहता हूँ पैर में कांटों की लेके पीर, दुःख और कब्र तक दोस्तों हो जितना भी फासला।


De ja meri kalam nu ik hor haadsa.
Aj fer dil gareeb ik paaNda hae vaasta,
De ja meri kalam nu ik hor haadsa.
ik hor haadsa.

{I want to walk with the ache of the thorn in my foot,
Whatever be the distance, from sorrow to the grave.}

Aa bahuR Shiv nu peeR vi hae kaND de chali ,
Rakhi si jihdi os ne mudat toN daastaaN!

जिन पीड़ाओं ने भी मुझसे नज़र फेर ली है, वे वापिस चली आएं। एक अरसे से तुम मेरा किस्सा जो रही हो।

{Even pain has turned its back upon me. Come back! says Shiv,
You have been my tale for a long, long time!}

Shiv Batalvi

– प्रज्ञा मिश्र “पद्मजा”

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