नाती बाबू अन्वित के जन्म लेने के बाद मेरी जैधी सोमा पहली बार अपने ससुराल जाएगी। जेठानी जी भावुक हैं, हों भी क्यों न , बेटी दोस्त हो जाती है, ताकत हो जाती है, किचन से लेकर घर बाहर के सारे काम में, राय लेने की आदत पड़ जाती है। एक दूसरे का भावनात्मक सहारा ।

छोटी बेटी, सोना, मेडिकल की ओढ़ाई करने पहले ही दूसरे शहर चली गयी। अब सोमा भी विदा होगी। साथ रहेगा ईशान , प्यारा बेटा। पर बेटी तो दोस्त हो जाती है उसके कंधे पर हाथ रख कर हँसी ठिठोली याद आएगी।

दीदी कह रहीं थीं , “बात करती रहना प्रज्ञा”।

मेरी भी आँख भर आयी। दूर फ़ोन पर गला रुंध गया।

सोमा ने एक इच्छा जतायी है, कहा है, “चाची, आप हमेशा माँ पर लिखती हैं, पत्नी और भी लिखिये कभी” । ज़रूर लिखूंगी , पत्नी पर कविता लिखनी है, देखती हूँ कब लिख पाती हूँ।
तब तक सोमा इस आग्रह को भूल अपने ससुराल के कामों में अपने बेटे में व्यस्त भी हो जाएगी। फ़िर एक दिन किसी मेसेज में याद दिला कर कहूँगी तुम्हारी फरमाइश पर एक कविता, थोड़ी देर से ही सही मैं याद तो रखती हूँ।

रिश्तों का ताना बाना कुछ ऐसा ही होता है, देर से ही सही , कभी व्यस्त ही सही, ज़ेहन में हमेशा रहते हैं, जैसे अपना अस्तित्व याद रहता है वैसे रिश्ते याद रहते हैं।

प्रज्ञा मिश्र ‘पद्मजा’

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