“बाबा आप सबकी छीछालेदर कर देते हैं आखिर आप किसकी तरफ़ हैं?”
“मैं उस आदमी की तरफ़ हूँ जिसकी आधारभूत ज़रूरतें भी पूरी नहीं होती जिसके लिए इस आज़ादी के कोई माइने नहीं है। “
*बाबा के जन्मदिन पर एक विचार अभिव्यक्ति
समय के साथ हमारे देश में परीक्षा के प्रेशर, ऑनलाइन गेमिंग प्रतिस्पर्धा, दोस्तों के बीच दिखावे से उतपन्न कुंठा से आत्महत्या करने वाले बच्चों की संख्या बढ़ गई है।
जिसके क़ई कारण हो सकते हैं लेकिन एक जो मुझे लगता है वह है कि बेकार के आडंबर में लिप्त अपने मूल भारतीय स्वभाव से दूर होते जाना। बाबा हमेशा मौलिकता पर बल देते थे। ज़मीन से जुड़े रहने पर बल देते थे।
उनको याद करते हुए प्रस्तुत है एक अभिव्यक्ति उन बच्चों के लिये जो अपने परिवार में रहते अकेले पड़ जाते हैं।
मेरी माँ मुझे
बाबा नागार्जुन सरीखी हस्तियों से मिलवाती थीं,
घर में स्वामी विवेकानन्द की तस्वीर सजाती थी
योगासन सिखाती, कविताएँ सुनाती थी
साथ गाने गाती और नृत्य में रूचि जगाती थी।
मेरी दादी इंदिरा नेहरू और गाँधी से
मेरी अ ब स शुरू कराती थी
घर बाहर के सारे काम करवाती
माँ दुर्गा की फूल माला बनवाती
साँझ की दिया बाती करवाती थी।
अख़बार के मुद्दों पर चर्चा करती
स्त्री पुरुष सम्बन्धों और स्मलौंगिकता
जैसे विषयों पर समझ बढ़वाती
गांवों जाने के लिए पैसेंजर ट्रेनों से
यात्राएं करवाती थी।
सबसे निचले तबके के व्यक्ति के साथ बैठाती
आस पास की गरीबी
और पसीने की उठती दुर्गंध में
समाज कितना धैर्यवान होता है
सबसे रूबरू कराया करती थी।
क्या परिवेश अब बदल गया है?
या प्रबुद्ध अभिभावकों की कमी होने लगी
कल तक यदि मुझसे मेरा समाज बनता था
तो आज मैं समाज से कैसे बनने लगी?
व्यक्तिगत चरित्र निर्माण की प्रक्रिया
समाज की समस्या कब से होने लगी?
मेरे बच्चों के लिए क्या अच्छा रहेगा
मैं सरकार से क्यों समझने लगी?
क्यो थोपती हूँ ऐसे बोझिल विधाएं
जो निर्माणाधीन बचपन गिरातीं है
परवरिश में क्या कमी रह जाती है?
क्यों बच्ची बिना कुछ कहे चली जाती है
तमाम सुख सुविधाओं के बावजूद
क्यों घर में आदर्श की बातें जन्म घुट्टी भर रह कर
दम तोड़ देती है ?
इंटीरियर डिज़ाइन की साज सज्जा
महंगा बड़ा टी वी पी एस पी सेट
हैरी पॉटर के किताबों की पूरी वॉल्यूम
अच्छे महंगे गैजेट, ऑनलाइन पढ़ाई
नए नए रंग ढंग की कस्टम मेड ज़िन्दगीं
बहुत शानदार दिखावे मे बहुत खूब जँचती है
फिर भी असमय जान गंवाते बच्चों
के काम क्यों नहीं आती है?
क्यों हमारे प्लास्टिक पेंट्स की दीवार पर
“एक कील काम की” ठोकी नहीं जाती है?
Pragya Mishra ‘पद्मजा’
30 जून