हम कितने सारे काम एक साथ करने के पीछे भाग रहे। तरह तरह के पोर्टल्स जॉइन कर रहे, पर स्थिर हो के सोचें तो वेद , उपनिषद , गीता , अन्य धर्मग्रन्थ, प्रसिद्ध विद्ववानों की किताबें, भारतीय भाषाओं के अनुपम ग्रन्थ बार बार पढ़ कर साधने के लिए भी वस्तुतः पूरी लाइफटाइम कम है।
कितना कुछ उपलब्ध है आर्काइव्स में जिनको आज का आम नौकरी पेशा मानुस छू भी नहीं रहा। हमारे पुरखों की तरह हमारे कंटेम्पररी में आज कमाई से इतर पढ़ने की कोई टेंडेंसी नहीं है। उस पर ये नया चलन, ये दिखा वो भी जॉइन कर लिया, ये वेबिनार एटण्ड कर लिया, वो टॉक सुन ली। इसमें भी टिक नहीं रहे एक चीज़ पर , ये भी नहीं कि पूरा एंड तक फॉलो करें या अपना काम किसी अंजाम तक ले जाएं।
बस खोखो खेल के हर विधा में हाजरी लगाई जा रही है। शोध की प्रवृत्ति में कमी आ रही। हमारी स्कूली परम्परा पहले ही वैज्ञानिक सोच देने में अक्षम रही और “मे आयी गो टू टॉयलेट एंड में आई कमिन मैम ” वाली आदत मानसिक गुलाम अधिक बनाती गयी।
आगे चलकर नौकरी पेशा जीवन मे एक इंडिपेंडेंट कमाऊ नागरिक की तरह , सोशल मीडिया स्क्रॉलिंग में इतना सारा टाइम वेस्ट हो जाता है कि इंटरनेट और टेक्नोलॉजी से सम्भव हूए वेद, उपनिषद, गीता डिजिटाइजेशन का लाभ भी सब नहीं ले रहे। बस कुछ तो भी वेबिनार जॉइन कर लो कुछ कुछ सुन लो अधकचरा हो जाओ।
इस अधकचरा ज्ञान टापने वाली परम्परा के कारण हम सभी देख रहे कैसे छोटे-छोटे चिन्दी मसलों में, लोग उन बातों के लिए लड़ झपट करते हैं जिनको बस सुना है, पढ़ा कभी नहीं या तो पढ़ के भी आत्मसात नहीं किया।
समझ नहीं आता कोई अपने आपको इतना महान और काबिल कैसे समझ सकता है की अहंकार का पर्याय हो जाये। धरती पर मनुष्य हिलते डुलते पत्थर ही हैं। जैसे एक पेड़ है, एक पहाड़ है, वैसे आदमी और उसका परिवार भी धरती पर रखा हुआ उगता गया है, वो धरती फट के उसमे समाए, पानी मे बह जाए, पत्थर से दब जाए, धरती को क्या फर्क पड़ता है।
केवल एक व्यक्ति के मुताबिक कोई धर्म चले, रिवाज या परम्परा चले, एक ही परिवेश रहे और लोग उसी का अनुसरण करें की ज़िद ने कितने मोहक वनस्पतियों और जानवरों की प्रजातियाँ इस धरती से लोप कर दी । लालच लालच सिर्फ लालच और सत्ता लोलुपता, हंगर फ़ॉर पावर। कहीं रुकना नहीं है, कहीं टिकना नहीं है , आगे आगे और हँसोतो सब लेलो , इसका उसका सबका हक मार लो। हर छोटी आदत का बड़ा रूप सबके घर से शुरू होकर देश की राजनीति में मिल गया है।
मुझे एक कहानी याद आती है, शायद मैने जबलपुर प्रवास के दौरान “हितवाद” नाम के अखबार में पढ़ी थी। एक आदमी था उसको एक ईश्वर से वरदान मिला कि जाओ बच्चा तुम जितना दौड़ सकते हो उतनी ज़मीन तूम्हारी, लेकिन सूर्यास्त से पहले वापिस लौट आना। आदमी दौड़ता गया दूर निकलता गया, जब तक थका नहीं , तब तक लालच में दौड़ता गया।
दोपहर निकल गयी शाम होने हो आयी। जब तक मे उसे एहसास हुआ कि इतना ही उसे वापिस भी लौटना है उसको बड़ी तेज़ प्यास लग आयी और वापसी में जल्दी पहुँचने की घबराहट , सब हाथ से गंवाने के डर, डूबता सूरज, बढ़ती धड़कन और प्यास से उसके प्राण पखेरू उड़ गए वो अपनी कमाई ज़मीन पर आपने देह काठी भर हिस्से में दफन होकर रह गया। वो कुछ भी जी नहीं पाया।
आम भारतीय बहुत दिन गुलाम रहा। बड़ी संख्या में उसका हक़ नहीं भरा है अभी तक, अभी तो बस सत्तर कुछ साल हुए है। मुफ्त मिले तो हँसोतना और जो पास रहा उसे दुत्कारना नकारना और बिना प्रयोग के सड़ा देना सब उसके मनोविज्ञान का उसकी जीन संरचना का हिस्सा है । बहुत कम भारतीय अपनी क्षमता का पूरा जी रहे हैं। बहुत कम भारतीय भारत को पढ़ और उसे समझने की कोशिश कर रहे हैं।
Pragya Mishra