मिथिलांचल में सुहाग की एक निशानी होती है लहठी। हमारे इधर दूल्हन विवाहोपरांत एक साल तक काँच की चूड़ियाँ या मेटल नहीं पहनती। परिवार की औरतें दुल्हन को शादी के सांठ में मैंचिंग के लहठी सेट साड़ी के साथ लगा के देती हैं। जयपुर में इसके कारखाने होते हैं, यह राजस्थानी चूड़ियाँ/कंगन/बाला बोलकर काफ़ी प्रचलित है।दरभंगा और सीतामढ़ी तरफ़ भी इसका भरपूर प्रचलन है। लाह की बनी लहठी मिथिलांचल औऱ मारवाड़ दोनों जगह बनती है जबकि इन क्षेत्रों का आपस में और कोई कनेक्शन मुझे ठीक से मालूम नहीं। यह जानना रोचक होगा कि कैसे मारवाड़ और मिथिलांचल का लाह की चूड़ियों के प्रति एक सा प्रेम उमड़ा।
देशज लाह शब्द की उतपत्ति तद्भव लाक से हुई होगी जो तत्सम लाक्षा से बना होगा जिसे हम महाभारत के लाक्षागृह प्रसंग के माध्यम से अधिक जानते हैं।
आदरणीया शांति सुमन जी के नवगीत में से यह सुंदर पंक्ति याद आती है
जीवन की अल्पना रचेंगे
सुख के मीन मयूर
लहठी वाले हाथ तुम्हारे
माथे का सिंदूर