सद्गृहस्थों की चिन्ता का कारण बने रहना दाढ़ी रखने वालों की नियति है. दढ़ियल चाहे साधु हों या असाधु, सद्गृहस्थों का मुस्कानयुक्त झूठा अभिवादन उनके दैनिक जीवन का हिस्सा होता है. ये कहानी ऐसे ही एक दढ़ियल असाधु रत्नाकर पाण्डे की है.

रत्नाकर पाण्डे बलिया वाले चंद्रशेखर सिंह की तरह दिखते थे. खिचड़ी दाढ़ी, जिसे विचारमग्न होने पर वो सहलाते-खुजाते रहते थे, उनकी पहचान थी.

यहाँ तुकबंदी के लालच में मैंने उन्हें भले ही असाधु कहा हो, पर असल जीवन में वो इससे कहीं ज्यादा थे. स्थानीय लोग उन्हें पाँड़े बाबा कहते थे, और प्रशासन उन्हें बाहुबली कहता था.

पूरे इलाके के बाभन उनसे रिश्तेदारी के दावे करते थे, और चतुर राजनीतिज्ञ की तरह वे सभी दावों से सहर्ष सहमति जताते थे. नब्बे का दशक उनका दशक था. प्रदेश भर में दबंगई और सरकार में दखल ऐसी थी कि कोई आज तक न पा सका.

क्षेत्र के लोग आज भी याद करते हैं. बताते हैं कि रत्नाकर के पिता भवानी पाण्डे पंडिताई करते थे. भले आदमी थे. पट्टीदारी के झगड़े में उनकी बल्लम मारकर हत्या कर दी गयी थी. रत्नाकर भी पुत्रधर्म से पीछे नहीं हटे थे. तीन हत्याओं के आरोप में जेल गए, छूटे, और उसके बाद तो सब कहानी है.

रत्नाकर पाण्डे का गांव दुबौली था. शहर से सटा हुआ गांव था जो बाद में नगर पालिका की सीमा में आने लगा था. वहीं उनका बड़े अहाते वाला घर था. ऊंची बाउंड्री और बड़ा फाटक. शायद इसीलिए स्थानीय लोग उनके घर को ‘फाटक’ कहते थे. फाटक स्थानीय उद्दंड लड़कों का रोजगार केन्द्र भी था. शरीर मजबूत हो और लड़का ‘दबता’ न हो, तो बाप-दादा को लेकर फाटक जाओ, और 10 हज़ार रुपया महीना के आदमी बन जाओ.

पाण्डे जी कितने रुपयों के मालिक थे, या उनकी आमदनी का ज़रिया क्या था, ये आज भी शहर में चाय की दुकानों पर चर्चा का विषय रहता है. गरीब-गुरबा से लेकर उभरते छुटभैये तक, सभी पाण्डे जी की सम्पत्ति का आकलन करके सुख पाते हैं.

बतौर लेखक, अपने पाठकों की इस आकलन में सहायता करना मेरा कर्तव्य है, तो जान लीजिए कि उस दौर में राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आधे शराब के ठेकों पर पाण्डे जी का स्वामित्त्व था. बालू खुदाई के तमाम टेंडर पाण्डे जी कच्चा चबा जाते थे, और राज्य का कोई भी हाइवे पाण्डे जी की सहमति ‘खरीदे’ बगैर शुरू नहीं होता था.

खैर, वापस चलते हैं; तो पाण्डे जी सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करते थे. शाम होते ही बाउंड्री के कंटीले तारों में बिजली दौड़ने लगती थी. घर के भीतर से लेकर फाटक तक कुल पचास बंदूकधारी हमेशा मौजूद रहते थे, और विदेशी नस्ल के छः कुत्ते पाले गए थे, जो रात भर बाउंड्री के भीतर खुला घूमते थे.

दो-दो विदेशी पिस्तौलें कमर में खोंसने वाले रत्नाकर पाण्डे कभी कहीं बिना काफिले के गए हों, याद नहीं आता. नारायण दूबे ने जब उन पर हमला करवाया था, तो तीन गोलियाँ लगने के बावजूद अगले दिन वो अपने अहाते में बैठे चाय पी रहे थे. ये उनकी बुलेटप्रूफ जैकेट का कमाल था. किस्सा है कि उसी शाम इस हमले की मुखबिरी करने वाले अपने गनर को उन्होंने अपने सभी आदमियों के सामने अपने घर में ही फांसी दे दी थी, और दोबारा ऐसी गलती करने वाले को ‘अंडा-बच्चा समेत’ मारने की धमकी दी थी.

मुख्यमंत्री जी द्वारा रत्नाकर और नारायण के बीच समझौता करवाने के बावजूद नारायण दूबे की उसी साल सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी थी. नारायण दूबे के दोनों लड़के भी उसी दुर्घटना में मारे गए थे. निष्कर्ष यही कि रत्नाकर अपनी ज़बान के पक्के थे.

रत्नाकर अपने जीवन में एक सौ से अधिक मौतों के जिम्मेदार थे. तमाम अपनों को भी खोया था, पर उनकी सजल आंखें देखने का दावा कभी कोई नहीं कर सका.

कभी किसी बात का मलाल नहीं रहा उन्हें. पर एक घटना, जो उन्हें हमेशा सालती थी, और जिसे वो तमाम दिनों तक अपनी भूल मानते रहे, वो अशोक बाबू के इकलौते बेटे की हत्या थी.

गलती उनकी भी नहीं थी. अशोक बाबू का लड़का जिस तरह से उद्दंडता करता हुआ उनके काफिले को ओवरटेक कर रहा था, वो और क्या करते! नई उम्र का लड़का, बेअंदाजी से बुलेट आगे-पीछे कर रहा था. तीसरी मर्तबा जैसे ही उसने बगल से उनकी गाड़ी ओवरटेक की, उन्होंने गोली चला दी. बाद में पता चला अपने अशोक बाबू का लड़का था.

अशोक और रत्नाकर बचपन के साथी थे. रत्नाकर के पिता भवानी महाराज अशोक के घर कथा बांचा करते थे. रत्नाकर अशोक से माफी मांगने भी गए थे, और अशोक ने वहीं ऐलानियाँ कहा था कि वो रत्नाकर की हत्या अपने हाथों से करेंगे. रत्नाकर ने कोई जवाब नहीं दिया था, और इसे पुत्रशोक में डूबे पिता की चीत्कार समझ चुपचाप दल-बल समेत लौट आये थे. व्यावहारिक बात ये थी कि अशोक बाबू जैसा रिटायर्ड मास्टर उनका कुछ बिगाड़ सकने की हालत में था भी नहीं, और ये बात रत्नाकर बाकायदा समझते थे. फिर भी एहतियातन अशोक बाबू पर नज़र रखी जाने लगी थी.

जारी ….

भाग 2

भाग 3

भाग 4

हिमांशु सिंह सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी करते हैं और हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं. दृष्टि संस्थान से जुड़े हैं और स्वतंत्र लेखन भी करते हैं. हिमांशु सिंह से यहाँ दिये ट्विटर लिंक पर जुड़ सकते हैं
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