तेरे_नाम
जब तेरे नाम आयी होगी तब ही दादी माँ ने मेरी शादी के साँठ में यह बेडकवर बांधने के लिए जुटा लिया होगा। पिछले दस वर्षों में यह दूसरी बार खुला है, इससे पहले बिछा था 2010 के कोजागरी पूर्णीमा में। इस बार दस साल बाद एक शनिवार की दोपहर है , मेरे ऑफिस में छुट्टी है,और कोई अवसर नहीं। बजाय इसके कि मेरे हाथ में एक स्मार्ट फोन है और उससे मैं यादें भुनाती हूँ, लम्हे कैद करती हूँ फिर दूर किसी भविष्य में जाकर समय यात्री बनना है मुझे। कितना प्रदूषण है, मिलावटी भोजन अकर्मण्य शरीर , क्या जाने मेरा बुढापा मुझे कितनी बातें याद रखने दे। ये सब किसी पटल को बता देना चाहिए।
दादी माँ तोहफे देने में बड़ा यकीन रखती थीं। उनका मानना था “चीज सामान नय द रहल छि, एक टा याद द रहल छि, जखन जखन अहाँ ई देखब , अहाँ के हमर यार पड़त” ।
यूँ तो ये बेड कवर फिर सालों बात देखी लेकिन दूब घास सी अमर स्मृतियाँ मेरे मन के सुख सिंह मैदान पर पगडंडियों के अगल बगल उगती रहती हैं। बीच बीच मे रस्ता उकर आया है बार बार एक ही दिशा से आने जाने के कारण , मार्ग सुनिश्चित हैं बार बार आओगी तो इन रास्तों से चल कर घर मिलेगा। यादें मिलेंगी, अपने मिलेंगे। मीठी दादी माँ मिलेंगी।
कोस-ऊब से दांपत्य जीवन को फिर फिर हरा करते जाने के रास्ते निकाल कर रखते हैं बड़े बुज़ुर्ग, बहुत अनुभवी और जीवन की समझ जिन किताबों से न आयीं अपने सान्निध्य से देते हैं बड़े बुज़ुर्ग।
नहीं थी 2 जून 2010 को वो मेरे साथ फिर भी बहुत ज़्यादा थी। एक सुंदर भविष्य के आशीर्वाद की तरह, बड़ी मम्मी की तरह, माँ की पुरजोर मेहनत की तरह, पापा की व्यासतता और ससुराल वालों की आव भगत की तरह, विदाई में दादा जी के आंसुओं की तरह, दरभंगा के आकाशवाणी कालोनी में पूर्णियाँ की तरह, बक्से में बंद साड़ियों की तरह।
हाँ साड़ियाँ, बेहद प्रिय , मेरी माँ ने बहुत सारी दादी माँ की साड़ियाँ बांधी , उनको बढ़ियाँ कवर में डाल नाप के ब्लाउज़ लगा लगा रखे थे, माँ का पैर हमेशा दर्द करता है, टूटा था तो फिर जुड़ा नहीं फिर भी कितना कितना चलती रही मेरी शादी हो जाने तक। क्या ही फर्क है हमारी उम्र में और हिमालय सा धैर्य। वो भी मिली दादी माँ की स्मृतियों से निकली मीठी मुस्कान की तरह। कुछ साड़ियाँ ईशा को भी दी मैने दादी मां की निशानी की तरह।
सोचिये किसी का ऐसे जाना और फिर उसका हवा में घुल जाना फिर हर आती जाती साँस का हिस्सा हो जाना , आँखों से निकलना, दिल में पिघलना, स्वभाव की विनम्रता हो जाना। कोई ऐसे जाता है क्या?