मैत्रेयी पुष्पा जी लिखती है, जिनके घर किताबों से भरी अलमारियाँ हैं उनसे ज़्यादा रईस कोई नहीं। पुरुषों के बनाये समाज में ज्ञान का प्रकाश और किताबों का दामन ही ऐसे दो सहारे हैं जिनसे स्त्री उबरती है।
जहाँ तक मैने समझा है मैत्रेयी पुष्पा जी ने फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य को इस तरह पढ़ा है जैसे जोगन प्रेम में अपने इष्ट को पूजती है। वे ऐसा मानती रही हैं कि यद्द्पि वे उनसे कभी मिली नहीं पर उनको पढ़ने मात्र से उन्हें सर्वस्व मिल गया।
एक फेसबुक लाइव में सुना था कि रेणु जी के उपन्यास मैला आँचल से ही मैत्रेयी पुष्पा जी के जीवन के सबसे यादगार उपन्यास की नींव पड़ी थी। किताबें जीवन को आयाम देती हैं, बुद्धि को विकास देती हैं, व्यक्ति को रचनात्मकता की ओर ले जाती हैं, रचनत्मकता बुद्धि का मनोरंजन है।
किताब पढ़ने वाला व्यक्ति एकाकीपन और एकांत में अंतर समझने लगता है, फिर वो एकांतप्रिय तो हो जाता परन्तु एकाकी कभी नहीं होता। किताबों के सान्निध्य वाले मनुष्य ऐसा साहित्य रचते हैं जैसे मधुमक्खी सुंदर पुष्पों पर मंडरा स्वादिष्ट शहद बनाती है। किताब व्यक्तित्व को विराट बनाता है। व्यक्ति शरीर की सीमा निकल दिमाग के असीमित प्रयोग को छू सकता है।
परंपरागत भारतीय परिवार की प्रगतिशील महिलाएँ अद्भुत होती हैं, वे हँसते हँसते समय से लोहा लेती है। एक संकुचित समाज में, समय से बहुत आगे की सोच रखने वाली महिलाएं जब जब जन्म लेती हैं तब तब समाज करवट लेता है।
खुद को बहुत साधारण लगता है, हम सोचते है , हमें ज़िद थी इसलिए हमने पढ़ाई की या हमने लीक छोड़ी। पर यही लीक छोड़ कर चलने वाले नए मार्ग का निर्माण करते हैं। कितनी सशस्क्त, कितनी समझदार स्त्रियाँ।
यदि हमारे घर आँगन में ही ऐसी स्त्रियों का सान्निध्य हमे मिला हो जो किताब प्रेमी हैं , प्रतिदिन पढ़ती हैं तो हँसी हँसी में कही जाने वाली इनकी ज्ञान सूत्री बातें कान में आजीवन गुंजायमान होती रहती।
मेरी दादी माँ हमेशा कादम्बिनी पढ़ती थीं। परदादी रामायण , गीता का नियमित पाठ करती रहती थी। मेरी माँ हिंदी संस्कृत होम साइंस और योग की शिक्षिका थीं। दादी माँ की मौसेरी बहन ने सत्तर के दशक में ज़िद कर के पढ़ाई की , संस्कृत की स्कॉलर रहीं। घर के बच्चों पर ज्ञान का प्रभाव पड़ता रहा, पीढ़ी दर पीढ़ी पड़ ही रहा है।
बचपन की छवि ही अवचेतन है। मैं भाग्य शाली हूँ मेरे अवचेतन में औरत का स्वरूप भव्य है, आत्म निर्भर, निडर, कंधे तने हुए, अपने लिए आवाज़ बुलंद करने वाली औरतों का रहा हैं। वे अन्जाने ही घर के बच्चों की प्रथम शिक्षकाएँ बन जाती हैं, बेहद अनुकरणीय।
सादर प्रणाम



