आज स्वाधीनता दिवस के अवसर पर मैंने शतदल पॉडकास्ट पर राष्ट्रभावना से ओत प्रोत कविताओं का पाठ किया वह ब्लॉग में भी शामिल कर रही। इस स्वतंत्रता दिवस पर मंथन कीजिये कि क्या आप शारीरिक और मानसिक रूप से सच में स्वतंत्र हैं? स्वच्छ हवा, परिवार के लिए भरपूर समय, मानसिक शांति, स्वस्थ शरीर के साथ साथ क्या शांत मन हमारे पास है?क्या आपके निर्णय किसी के भेझे व्हाटसप मेसेज से प्रभावित हैं या आपके अपने अध्ययन से?

विज्ञान पढ़ने वाले हमारे बच्चे बराबरी में अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र भी पढ़ें , केवल परीक्षाएं पास करने के लिए नहीं, बल्कि गहन पठन पाठन हो। साहित्यिक विधाओं का गंभीर अध्ययन हो।

देश और समाज से जुड़े विभिन्न विषयों पर नागरिक सार्थक चर्चा अब कम देखी जाता है। सामुहिक चर्चा स्तरहीन सिने जगत या राजनीतिक चुटकी लेने तक सीमित हो गयी है। आज भारत को ज़रूरत है ऐसे नागरिकों की जो स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने बच्चों के लिए कैसा भारत छोड़ रहे इस पर चर्चा करें। चाहे सरकार किसी की भी हो, उसपर आँख मूँद कर बिल्कुल भरोसा न करें। नागरिक अपना हित अहित स्वयं समझें। गाली की भाषा से स्वतंत्रता, सांप्रदायिकता, धर्मांधता से स्वतंत्रता, सबल के दबाव से स्वन्त्रता। झूठ, फरेब मक्कारी से स्वतंत्रता। हम बनें बौद्धिक विकसित जनता जिसको देश की समस्याओं में दिलचस्पी है। हम सार्थक भागीदारी नहीं लेंगे तो हम पर वे लोग राज करने लगेंगे जिनको हमारे हित से मतलब नहीं।

उस मेढ़क की कहानी याद करिये जो अपने दोस्तों के साथ एक कूंएँ मे रहता था।पानी का तापमान जब बढ़ने लगा तो कुछ मेंढकों ने एडजस्ट करने से मना कर दिया और कुछ बढ़ता तापमान सहते गए। जो मेढ़क बढ़ने की कोशिश करते रहे वे बाहर आ गए, बच गए, जी गये। लेकिन जिन्होंने एडजस्ट करना उचित समझा उन्होंने धीरे धीरे आत्मविश्वास और जूझने की क्षमता गंवा दी और एक दिन बढ़ते तापमान में जलकर मर गए। अपनी क्षमता को इतना भी न एडजस्ट करिये कि विरोध करने की बारी आये तो कुचल दिए जाएं।

हम पँछी उन्मुक्त गगन के पिंजर बद्ध न गा पाएँगे

कनक तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाएंगे

हम बहता जल पीने वाले मर जायेंगे भूखे प्यासे

कहीं भली है कटुक निम्बोरी कनक कटोरी की मैदासे

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शतदल के सभी श्रोताओं को भारतीय स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं। आज आज़ादी की ख़ुशी मनाने के उपलक्ष्य पर शतदल पे प्रस्तुत है राष्ट्र भक्ति स्वर की प्रमुख कविताओं का पाठ :

राष्ट्रगीत के रचनाकार बंकिमचंद्र ने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1857 में बीए किया। यह वही साल था जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली बार भारतीयों ने संगठित विद्रोह किया था। बंकिमचंद्र प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की डिग्री पाने वाले पहले भारतीय थे। साल 1869 में उन्होंने कानून की डिग्री ली जिसके बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर नियुक्त हुए। कहा जाता है कि ब्रिटिश हुक्मरानों ने ब्रिटेन के गीत ‘गॉड! सेव द क्वीन’ को हर समारोह में गाना अनिवार्य कर दिया। इससे बंकिमचंद्र आहत थे। उन्होंने 1875-76 में एक गीत लिखा और उसका शीर्षक रखा ‘वंदे मातरम’… 1905 में यह गीत वाराणसी में आयोजित कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में गाया गया। थोड़े ही समय में यह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय क्रांति का प्रतीक बन गया।

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यशामलाम्
मातरम्।

वन्दे मातरम्
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्।
वन्दे मातरम्।

कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम्।
वन्दे मातरम्।

अगली रचना है भारत भारती :

भारत भारती, मैथिलीशरण गुप्तजी की प्रसिद्ध काव्यकृति है जो १९१२-१३ में लिखी गई थी। यह स्वदेश-प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है।

गुप्त जी ने ‘भारत भारती’ क्यों लिखी, इसका उत्तर उन्होने स्वयं ‘भारत भारती’ की प्रस्तावना में दिया है-

यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है! ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा हीं पतन! परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में हीं पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ जाएँ और हम वैसे हीं पड़े रहेंगे? क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गए हैं कि अब उसे पा हीं नहीं सकते? संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को, इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता-पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्त्ति के लिए मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया।

हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे

अतीत खण्ड का मंगलाचरण द्रष्टव्य है –

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती-
भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते।
सीतापते! सीतापते !! गीतामते! गीतामते !! ॥१॥

इसी प्रकार उपक्रमणिका भी अत्यन्त “सजीव” है-

हाँ, लेखनी ! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा,
दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वथा ॥१॥
स्वच्छन्दता से कर तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो,
जग जायँ तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो। ॥२॥

संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,
हैं निशि दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;
जो आज उत्सव मग्न है, कल शोक से रोता वही ॥३॥

इस देश को हे दीनबन्धो!आप फिर अपनाइए,
भगवान्! भारतवर्ष को फिर पुण्य-भूमि बनाइये,
जड़-तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा पूर्ण है,
हेरम्ब! अब अवलंब देकर विघ्नहर कहलाइए।

यह था भारत भारती के विभिन्न खंडों से अंश पाठ।

अगली रचना है स्वत्रंता पुकारत
जयशंकर प्रसाद भारत वर्ष के एक बहुत ही प्रचिलित और महान कविकार थे| वे कविकार होने के साथ साथ नाटककार , कहानीकार, निबंधकार और उपन्यासकार भी थे| जयशंकर प्रसाद जी हिंदी के छायावादी युग के प्रमुख चार स्तंभों में से एक थे| उनका जन्म 30 जनवरी 1889 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में हुआ था| उन्होंने ही हिंदी कविता के छायावादी युग की रचना की थी| स्वतंत्रता पुकारती उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविताओं में से एक है जिसे उन्होंने भारत के स्वतंत्रता सेनानिओ को समर्पित किया था।

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!

समस्त देश वासियों को स्वतंत्रता दिवस की बधाई। आज़ादी को टेकन फ़ॉर ग्रांटेड नहीं लेना चाहिए ये बहुत मुश्किल से मिली है और बहुत ज़िम्मेदारी से सम्भाली जानी चाहिए वर्ना हमें पता भी नहीं चलेगा कि कब हमारे मूलभूत अधिकारों का हनन होने लगा और निर्णय थोपे जाने लगे जिनसे हमारा व्यक्तिगत विकास अवरुद्ध होता चला जाये । देश से प्रेम करें, दिमाग लगा कर ईमानदार रहें, जागरूक नागरिक रहें ।

सुनिये शानदार गीत स्वन्त्रता दिवस के अवसर पर

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