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तुझे पुकारता है
मेरा मौन

अब कुछ नहीं कहूँगा
ना लिखूँगा
बस चुप रहूँगा

तुम मेरे मौन में
शामिल रहना

तुझे पुकारता है
मेरा मौन

नमस्कार दोस्तों,

स्वागत है आपका kuku FM , शतदल पर । प्रेम और साहित्यिक चर्चाओं के बीच आज लेकर आई हूँ।
आदरणीय मनोज कुमार झा जी की रचनाएँ।

मनोज कुमार झा
शिक्षा : एम.ए. (इतिहास), जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
छात्र जीवन से ही साहित्यिक लेखन, वैचारिक कलमकार मासिक का संपादन (1982-85)।
प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से संबद्ध।
विविध पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख, समीक्षा, शोध-लेख प्रकाशित।
राजनीतिक विषयों पर प्रचुर लेखन।
कविता-संग्रह ‘लाल-नीली लौ’ का 1992 में प्रकाशन। दूसरा कविता-संग्रह ‘तुमने विषपान किया है’ 2018 में अमन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित, तीसरा काव्य-संग्रह ‘एक नयी यात्रा पर’ नमन प्रकाशन से ही जनवरी, 2020 में प्रकाशित।
सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ इंट्रक्शनल टेक्नोलॉजी, नई दिल्ली में रिसर्च एसोसिएट।
भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली में रिसर्च एसोसिएट।
कई अख़बारों में काम किया। फ़िलहाल पत्रकारिता, स्वतंत्र लेखन।

Email : manojkumarjhamk@gmail.com
Mobile : 7509664223

तुम तलक आवाज़ शायद जाती है
वहां से चुपचाप खाली लौट आती है।

आग कैसी ये कभी भी बुझती नहीं
बर्फ़ पड़ जाए तो भी धुआंती है।

रात की सियाही में ये कैसे रंग हैं
तेरी तस्वीर खिल-खिल जाती है।

सहर होने का अब इंतज़ार करे कौन
भटकेंगे हम तनहा नींद नहीं आती है।

प्रेम में प्रतीक्षारत रहना असहनीय पीड़ा होती है
जिसे आवेग को केवल एक सुंदर कविता के माध्यम से व्यक्त कर पाते हैं।

आ गया हूँ मैं
ये किस बन में

यहाँ ज़मीन
जल रही है

अतल गहराइयों में
लगी है
कैसी आग़

सुर्ख़ी
है फूलों में
वृक्ष की फुनगी
लहक रही है।

यह बौद्धिक होने की समस्या है। आप जैसे हैं अक्सर वैसे नहीं स्वीकारे जाते हर कोई अपनी तरह का कस्टमाइज्ड इंसान अपने जीवन में चाहता है, हम रोबोट थोड़ी हैं, इंसान हैं, हमारे उतार हैं चढ़ाव हैं लेकिन भावना की चोट खाती लहरों के बीच कोई उदास हो गया अब हमसे बात नहीं करता तो इसमें उसका भी क्या कसूर। जब तक ये जीवन ये तब तक ये दंश रहेगा।

साँझ

साँझ अब हो रही है
चुप्प-चुप्प
दूर-दूर तक फैलती जा रही
दिग-दिगन्त में
साँझ हो रही है
किस असीम
चेतन-अवचेतन में
साँझ

इस पहाड़ में
साँझ को देखो
इन पत्थरों को
कैसे रंगती
हो रही साँझ

इस साँझ को अभी देखो
अभी-अभी
होती साँझ को

ऐसी फ़िर नहीं होगी साँझ
इस साँझ में
समय की पुकार भी
समा रही है

और मैं तुम्हें पुकारता हूँ
इस साँझ !!!

बात इतनी कि बस निभती ही चली जाए
फ़िर भी लुत्फ़ इतना कि मुहब्बत हो जैसे।

अब ये चर्चा है कि तुम आओगे
आओगे तो बदलोगे क़िस्मत मेरी

तो दोस्तों ज़रूर बतायें कैसी लगीं आज की कविताएं आपको और क्या कुछ जुड़ता है आपके जीवन से।
आपका दिन शुभ हो , नमस्कार।

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