आँख बंद करने पर
माथे के बीचों बीच
सफेद रौशनी उगती है
वो एक गली पकड़ती है
आस-पास लोग खड़े हैं
ताकते हैं जैसे
चलता आदमी गुनहगार हो।
वो रौशनी और वो गली
यूँ सिकुड़ कर बिन्दू में
सिमट गयी कि जाने राहगीर का
क्या हाल हुआ होगा।
नये मंज़र आने से पहले आवाज़ें आती हैं कि
अब और भ्रम में जिया नहीं जाता।
सड़क पर, घर में,
छत पर, चौराहे में
आप कहीं भी हों
जिसके बारे में
बात नहीं होती
वो नज़ारा सामने से
हटाया नहीं जाता।
जहाँ देह जा नहीं सकती
वहाँ मन दौड़ता है
क्या कुछ खोजने के लिए।
अंत: में इतनी कीलें हैं और उनपर टँगी
प्लास्टिक थैलियों का अंबार की
अब खुद को तलाशने में
वक्त ज़ाया किया नहीं जाता।
*प्रज्ञा*
11 May 2019
शनिवार
Awesome creativity…..
LikeLike