बेटा,
#विंस्टन #चर्चिल की आत्मा फिर जीत का अट्टहास कर रही होगी , बड़े आये आज़ाद होने वाले , आदमीयत तो सम्भाली नहीं जाती स्वराज सम्भालेंगे । #Rascals, #Rogues and #Freebooters वाशिंदे ,राम के नाम को भुनाते दरिंदे।
ऊपर आसमान में हमारे शहीद मूँह लटकाए सोचते होंगे किस चोले में वापिस जाएं राम-रहीम को एक कराएं । इससे पहले की स्वामी विवेकानन्द की धरती के रहिवाशी होने पर हमको शक होने लगे मैं तुमको बताना शुरू कर देती हूँ कि हम आज़ाद हुए थे । ऐसा हाल ही में हुआ था।
हमारी आज़ादी में गाँधी बापू का योगदान था। उन्होंने अहिंसा का मंत्र दिया था। अहिंसा मतलब “बुरा मत सोचो” । गांधी जी का नाम “बापू” , रविन्द्र नाथ टैगोर ने रखा था , गाँधी जी ने उन्हें को “गुरुदेव” कहा।
ये अलग बात है कि आज अधकचरा पढ़े लोग ठीक वैसे ही ऐतिहासिक लोगों की पहचान जला रहे हैं जैसे कभी नालन्दा जलाई गई थी , महीनों तक। “देखो !अवशेष न बचने पाए , नए आका, नई साख बनायें ।”
बेटा, हमारे देश में लोग बहुत गरीब मेहनती रहे हैं। सबके पास पढ़ने आगे बढ़ने का ध्येय था। घर-घर में महान हस्तियों की तस्वीरों को देखते हुए आदमी का बच्चा बड़ा होता था जैसे भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद , मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, खां अब्दुल गफ्फार खां “सरहदी गाँधी” , मदाम भीकाजी कामा जिन्होंने भारतीय झंडे का प्रारूप तैयार किया था।
किसान , जवान , छात्र रेडियो सुनते थे, बाल जगत, युववाणी , रोज़गार समाचार, हिंदी के समाचार, अंग्रेज़ी के समाचार , उर्दू के समाचार। उर्दू बस भाषा की तरह देखी जाती थी । रूह अफज़ा एक शर्बत । ईद एक त्योहार । राम एक भगवान और हनुमान केवल राम के भक्त।
बीस-तीस साल के आम ग्रेजुएट लड़के अर्थ व्यवस्था , वाणिज्य , देश विदेश, राजनीति , न्याय व्यवस्था , असली साम्यवाद पर रीढ़ की हड्डी सरीखी चर्चाएं करते थे। वे चाय पीने के नए-नए शौकीन हुए थे पर उतना चलता है।धीरे- धीरे इस युवा की बौद्धिकता को पहले बी.पी.ओ सेक्टर के पचास हजार प्रतिमाह ने मारा था , फिर मैकडोनल्ड, के.एफ.सी ने दिमागी ताकत पर पोछा ही लगवा दिया। अब आज युवा पार्ट_टाइम_हत्यारा@मॉबलिंच का स्टार्टअप चला रहे हैं।
हमारे देश में मात्र अट्ठारह – उन्नीस की उम्र में शिव बटालवी जैसे संजीदा शायर, “लूना” के लिए साहित्य अकादमी जीत चुके थे । सफदर हाशमी से होनहार चौंतीस की उम्र में समाज सुधार की प्रक्रिया के दौरान बीच सड़क नुक्कड़ नाटक खेलते शहीद हो जाते थे।वे युवा आज चरस हो चले हैं।
“पढ़ना , लिखना ,सीखो ओ मेहनत करने वालों , पढ़ना लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों…. ” ये सफ़दर हाशमी जी की लिखी है तब दूरदर्शन पर आती थी। लोग साक्षर हों तब बस यही ध्येय था। अब लोग स्कॉलर हैं लेकिन निरे बटोरू । ज्ञान बटोर-बटोर के बटेर हो गए औऱ तितर-बितर होने की कगार पर हैं।
अच्छा! बहुत रात हुई कल तुम्हरा स्कूल है । वैसे भी अचानक सब खत्म नहीं होगा , हमारा देश सोने की चिड़ियाँ का अवशेष है अभी बहुत शान बाकी है , मिट्टी, पानी और हवा के पास समय कम हो सकता है । पर हम आदम की पुश्तों के अनुसार अब भी समय काफी है ।
आगे की और भी बातें मम्मी कल बताएगी।
शुभरात्रि।
Pragya Mishra