मैं मेज़ पर रखी चाय से अपेक्षा रखती हूँ।
घर की साफ सुथरी फर्श पर लेट,
गर्मी की शाम खुशनुमा करती हूँ।
घर में लोग होते हैं, सबसे बात होती है।
अपेक्षाएँ केवल चाय की प्याली समझती है।
कितनी और भी ऐसी
निर्जीव अपनी सी
चीजों की दुनिया है हमारी,
ये बोलते नहीं
कहीं जाते नहीं।
गुम होते रहते हैं बस
इनमें रिंगटोन लगाओ।
मोबाइल से ज़रूरी
एक डायरी
कुछ सालों से गुम है।
मेरी अपेक्षाएँ नम हैं।
*प्रज्ञा*
बहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई रचना …..आभार
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आभार
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