मैं मेरे बचपन के दिनों की सरस्वती पूजा को याद कर के अब तक के जीवन में आये परिवर्तनों को ज्यों का त्यों जीने की कोशिश कर रही हूँ। मैं एक पन्ने में किसी पिछले जन्म की बातें लिख रही हूँ , समय अपनी चाल चल रहा है और मैं कुछ छूटा पिछला फिर भविष्य में ढूँढ रही हूँ।
बिहारी होने के कारण सरस्वती पूजा मेरे लिए
बहुत महत्त्वपूर्ण त्योहार रहा है। मैं कक्षा छः में थी जब पापा बाड़मेर,राजस्थान से स्थानांतरित होकर दरभंगा आये। सी. एम. कॉलेज की संजू दीदी हमारी पड़ोसी, मेरी मित्र और परिवार बन गयीं थी ।
उनके साथ बंगला स्कूल और आस पास के स्थापित पंडाल देखने जाते थे।
कोई नया सलवार-सूट जो टावर चौक के धारीवाल टेलर्स से सिला के आता था वही पहन ओढ़ के निकलते थे। मेरी बहन ईशा कोई क्लास दो या तीन में रही होगी तब।
बंगाल – बिहार में सरस्वती पूजा भव्य मनाई जाती है, ओढीशा तो मैं गयी नहीं ।
एक बार की बात है, मैं और संजू दी ईशा को साथ लेकर पंडाल घूमने निकले थे, लौटते हुए सामने के मैदान वाला रास्ता लिया। हमारे हाथ में प्रसाद की थैलियां थी और दरभंगा में बंदरों का आतंक। बस फिर क्या था, दो बन्दर आ लपके हमारी तरफ । मैं भागी एक घर के अंदर और संजू दीदी भागी किसी दूसरे घर के अंदर । ईशा को बीच में से उठाने का साहस किसी में नहीं हुआ। बन्दर महोदय के हाथ कुछ न आया तो वो खिसिया के ईशा के पैर पर काटने लगा । सर्दी का समय था, मैंने ईशा को मोटा पैजामा पहनाया था, पर बन्दर ठहरा आदमी का अग्रज उसने खड़ी डरी बच्ची की एड़ी के तरफ से मोटा पैजामा उठाया , काटा और खिखियाता चलता बना। पूरी पिकचर खत्म हुई तो ईलू रानी को मैदाने जंग से उठा कर हम सब सूई लगवाने दौड़े।
1998 की इस घटना से मिली सीख का गूढ़ तातपर्य 2009 में एरोप्लेन वाली बाई की बातों में मिला , “विपत्ति में पहले अपना ख्याल रखना”, केवल मैन्युअल के तहत नहीं कहती है ,वो याद दिलाती है कि तुम अवचेतन(subconsciously) स5भी यही करने वाली हो।
साल 1999 के बाद हम प्रोफेसर्स कॉलोनी छोड़ के , टेस्टी स्वीट्स के आस पास रहने लगे। जगह का नाम मैं भूल गई हूँ, टेस्टी स्वीट्स का समोसा याद है।खैर बंगला स्कूल से सटी एक गली में, पूर्वे अंकल का घर था।
हर साल के त्योहार एक जैसे हों ज़रूरी नहीं होता किसी बार सादा-सादा बीतता है कभी बहुत भव्य हो जाता है। जब हम पूर्वे अंकल के यहाँ किरायदार की तरह रहते थे तब की एक सरस्वती पूजा भी ऐसी ही हुई।
मैंने और अरुण अंकल ने माँ सरस्वती की पेंसिल स्केच से बना एक बड़ा और सुंदर तस्वीर-फ्रेम खरीदा। बड़े से भगोने में बेर , शलगम , बुनिया , फल ,मिठाई काट कर सजाए गए।पूर्वे अंकल की पत्नी, उनके पुत्र और पुत्री के साथ आँगन वाली जगह पर पूजन हुआ। मुझे और अन्य सभी को जो भी मन्त्र वन्दना आदि आती थी हमने सब गाए।
ये साल मुझे याद इसलिए रह गया क्योंकि भैया ने इतना सुंदर तांडव स्तोत्र गाया था की मैंने उनसे स्तोत्र की फोटो कॉपी ली फिर संस्कार टी. वी. पर उस फोटो कॉपी को देखकर मंत्र के शब्दों को चैनल पर आए धुन में रोज़ सुनने लगी। वो धुन और तांडव स्तोत्र आज तक याद है। मुझे भी, और ईशा को भी।
दादी माँ, दुर्गा पूजा के अवसर पर कलश बैठाती थीं । हम दोनों बहनें सांझ दिखाने के बाद साथ उसी स्वर में तांडव स्त्रोत गाते थे।
इसे गाने में ऐसी ऊर्जा का संचार होता है की आदमी हाथ से ही एक आधा जी-सैट अंतरिक्ष में छोड़ आए।
पर हम उस ऊर्जा के साथ बस अच्छी नींद सो जाते थे। जिन्हें सपने देखने हों वो सपने देखे , उत्पन्न ऊर्जा को उन्हें पूरा करने में खर्च करे। जिन्हें देर तक सोना हो वो देर तक सोये। समय को छोड़कर किसी और को कोई जल्दबाज़ी नहीं होती, और फिर ऊर्जा अपनी-अपनी होती है, निर्णय भी अपना-अपना होता है। परिणाम उसी आधार पर मिलेंगे और उसे स्वीकार करना होगा।
दरभंगा की गलियों, पंडालों से बाहर , मैंने केंद्रीय विद्यालय हवाई अड्डा के दिनों में भी खूब सारी सरस्वती वंदना सीखी। वे सब मुझे अब तक याद हैं और मैं बड़े गर्व से गाती हूँ।
काफी बाद में साल 2017 से एम ए हिंदी की पढ़ाई शुरू करने के दौरान पता चला की इतनी सुंदर माँ सरस्वती की वन्दनाएँ महाप्राण निराला जी ने लिखी थीं।मैं चुपके से माँ सरस्वती से वही कलम माँगती हूँ और वही शक्ति माँगती हूँ जिसमें जीवन के अनुभव वन्दना बनकर, फूल होकर कागज़ पर झरने लगे ।
स्कूल में दीप्ति प्रिया दीदी माँ सरस्वती बनती थी, वो हमेशा सौम्य,सुंदर,शीतल लगती थी। अब जब वो बंगलोर में एक सफल बाल मनोवैज्ञानिक की तरह कार्यरत हैं तो उनका सरस्वती का रूप लेना कितना सार्थक हो गया।
वी के सिंह सर हारमोनियम पर बड़ी खूबसूरत धुन बजाते थे और हम चार-पाँच लड़कियां लीड प्रेयर टीम में हर सुबह यह मंत्र गाती थीं। –
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥
केंद्रीय विद्यालय के सरस्वती पूजन के कार्यक्रम में मैं और निवेदिता(अब डॉक्टर निवेदिता) अक्सर हमारी लाइब्रेरियन और सोशल साइंस टीचर निशा मैम का सिखाया नृत्य करते थे। स्टेज हमेशा प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर और कक्षा दसवीं के सामने लगता था। गलियारों में कुर्सियां लगती थीं सभी शिक्षक वहाँ बैठते थे और बाकी जगह बच्चे।
हे शारदे मां, हे शारदे मां अज्ञानता से हमें तार दे मां
तू स्वर की देवी है संगीत तुझसे,
हर शब्द तेरा है हर गीत तुझसे,
हम हैं अकेले, हम हैं अधूरे,
तेरी शरण हम, हमें प्यार दे मां
हे शारदे मां, हे शारदे मां अज्ञानता से हमें तार दे मां…
मुनियों ने समझी, गुणियों ने जानी,
वेदों की भाषा, पुराणों की बानी,
हम भी तो समझें, हम भी तो जानें,
विद्या का हमको अधिकार दे मां
हे शारदे मां, हे शारदे मां अज्ञानता से हमें तार दे मां….
तु श्वेतवर्णी, कमल पे बिराजे,
हाथों में वीणा, मुकुट सर पे साजे,
मन से हमारे मिटा दे अंधेरे,
हमको उजालों का संसार दे मां
हे शारदे मां, हे शारदे मां अज्ञानता से हमें तार दे मां….
जो गाना मैंने दीप्ति दीदी के साथ परफॉर्म किया है स्टेज पर वो था :
जयति जय जय माँ सरस्वती
जयति वीणा वादिनी
जयति जय पद्मासना माँ
जयति शुभ वरदायनी
कमल आसन छोड़ दे माँ
देख मेरी दुर्दशा
कमल आसन छोड़ दे माँ
देख मेरी दुर्दशा
शांति की दरिया बहा दे
प्रेम को गंगा बहा दे
तू है शुभ वरदायनी
जयति जय जय माँ…
एक गीत और भी था किसी गाने की तर्ज पर जिसपर दीप्ति दी अकेले नृत्य किआ करती थीं, हिंदी मूवी का वह गीत था मिलो न तुम तो हम घबराएं मिलों तो आँख चुराएं..
उसी तर्ज पर वी के सिंह सर ने फिट किआ था या चलन में ऑडियो कैसेट थे तब नहीं कह सकती :
विणा वादिनी ज्ञान दायिनी
आये हैं तेरे द्वार
मधुर संगीत सुना दे
मधुर संगीत सुना दे
कोयल की तान अम्बे
जग में गूंजा दे
एक बार माँ
अमर ज्ञान दे ज्योति प्रकाशिनि
तेरा ही आधार
मधुर संगीत सुना दे
मधुर संगीत सुना दे
तब हमारी स्कूल की बिल्डिंग ऐरफोर्स के क्वार्टस थे। अब एक शानदार स्कूली बिल्डिंग है । मैं फिर कभी जा नहीं पायी। फेसबुक के ग्रुप में देखती हूँ। गर्व होता तो है पर अपना सा नहीं लगता । समय के साथ जो इतिहास जिया था उसके अवशेष ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे वाला एहसास कोई बहुत अच्छा नहीं होता । पर मैं अब बड़े शहर में हूँ मैंने कई सेमिनार्स अटेंड किये हैं , मूव ऑन हील द पास्ट की आइडियोलॉजी की कई किताबें चाट रही हूँ ।
दरभंगा का केंद्रीय विद्यालय , देबेन्दु बिस्वास सर का इंग्लिश ट्यूशन , दरभंगा में पंडाल घूमना सब अचानक छूट गया। धीरे धीरे सब मेरे दिमाग की तह में बैक-सीट हो लिए एक दिन स्मार्टफोन की की-बोर्ड से किसी लेख में उतरने तक।
ग्यारहवीं – बारहवीं में राँची जाने के बाद से मुंबई तक फिर मैंने सरस्वती पूजा को बस बांग्ला बन्धुओं के त्योहार की तरह से देखा जिसके घनघोर जोश का कारण ठीक-ठीक समझते हुए भी मैं जुड़ नहीं पाई ।
कुछ साल तक मैंने मेरे स्तर पर सरस्वती पूजा के जोश को जीवित रखा पर समय की मार वाला मेढक एडजस्ट कर के जितना मिल जाये उसी में चलाने की कोशिश कर रहा है ।
मन के पुरातत्व विभाग की बहुत सी बातें दरवाज़ा खोल रही हैं ।बाहर निकल कर नये कुछ रसीले फल खाने की उम्मीद में।इसकी एक प्रति निकाल कर फिर गमले में लगाएंगे ।
हम आलोक की क्लास में आने वाले वर्षों में एक तरीके से सरस्वती पूजा मनाएंगे । उसी निष्ठा और भक्ति से जैसे कांदिवली स्थित धानी अकेडेमि के पाठक सर किया करते थे।
प्रज्ञा
10/2/2019
मैम पोस्ट पढ़कर मन आह्लादित हो गया आपका प्रयास सराहनीय है।
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Beautifully composed
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Thanks much !
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वाह!स्मृतियों के खांचे में अब तक सभी घटनाएं सलीके से संभाल रखी है।बहुत खूब!!
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प्रणाम, धन्यवाद!
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