न चार दीवारी टूटती है
न घर की चौखट छूटती है
शब्द कब तक बेचैन बंधे रहें
किताब की सेज पर बिछने को
महुरत की देह पर लोहे की सील है
न कैंची से कटती है न हथोड़े से पटती है।
हालात और मजबूरियों के बहाने
खोखले होते हैं,
जिन्हें मालूम अपनी अहमीयत
वो एक दिन चुप हो जाते हैं
बस मुस्कराते हैं
और लिखकर छोड़ देते हैं ज़माना
दुनियादारी तुम्हारे भरोसे
इसका खयाल रखना
कोई तो दस्तूर निभाये
हम तो इसके काम न आये।
#प्रज्ञा
20 जनवरी 2019
सुबह 5 बजकर 13 मिनट
इस वक्त क्या कर रही हो?
त्रिवेणी पढ़ रही हूं।
“फिरि फिरि भूंजेसी तजिऊँ न बारू”
भाड़ की तपती बालू के बीच पड़ा हुआ अनाज का दाना बार बार भूने जाने पर उछल पड़ता है,पर उस बालू के बाहर नहीं जाता।