रास्ते में पड़ा मेरे काम का समान
किसी और को दे दिया जाए
उन कमरों तक बढ़ने दिया जाए
जहाँ दिल रहता है जहाँ मैं रहती हूँ।
कोई रौशनी जुगनू बनकर देर रात
खिड़की के बाहर आती है ।
पर ठंड का बहाना है और सारे पर्दे बन्द।
वो खड़ी रही नहीं जाती है।
डराती है बनकर अजन्मी अकांछाओं का प्रेत।
कौंधती हैं होकर मेरे मस्तिष्क में कागज़ पे निकलती सम्वेदनाएँ बनकर ।
यूं ही लिखते रहे
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जी ज़रूर
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achhi kavita
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Behad shukriya
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