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देखोे , बगीचे झरना जुगनू जैसे
शब्द नहीं हैं मेरे पास
मैं तुम्हारे साथ मुंबई के सबर्ब्स में रहने लगीं हूँ।
मुम्बई की अट्टालिकाओं में हवा
सुष्क हो चली है
समंदर अब दूर है
बीच बीच में मकान बन गए
लम्बे लम्बे
हवा बांद्रा से चलती टकराती
कहीं अंधेरी में रुक जाती है
इधर कांदिवली की ठंड भी ज़्यादा
पर नेशनल पार्क है तो गर्मी कम है
थोड़ी बहुत जो नमी है
समझो गोरई ने संभाली हुई है
लेकिन कमी और खालीपन
बम्बई से मुंबई में ज्यादा आने लगा है
मेरे घर तक भी आने लगा है
घर वाले बस स्टॉप और ट्रेन में
ज़िन्दगी का इकतीस परसेंट जीने लगे हैं
वहीं दोस्ती कर लेते हैं
वहीं प्यार हो जा रहा है
बाहर की सुलगाई
घर आके फूंक रहे हैं
समझ नहीं आता था होता क्या है
कभी तो ऐसे आता है कि
बस केक के थैले
कभी किसी से बात नहीं करता
अपने कमरे में बंद हो जाता है
अगले दिन निकलने के लिए
सूरज भी आठ मिनट लेगा
ये तो लिफ्ट आयी और फुर्र
लगता है लड़के को सोने के लिए
बस ट्रेन के साथ घर भी बुक करना था।
तो जगता कहाँ होगा ये
या सो ही रहा है।
इसको जगना होगा
हम आशावादी लोग हैं
झूमने और हल्लाबोल कर के
चुप्पी तोड़ने में यकीन रखते हैं
नीरसता को ढोल बजा के भगा देंगे
कोई मंजीरा बजा दो
शीतल गाना गाती है
रीमा ढोल बजाती है
और बहुत सारी औरतें हैं
इन्होंने मानो बीड़ा उठाया है
की बोरियत की चुप्पी को भगा दो
हकचल करो
आज इसके घर अगले हफ्ते उसके घर
नौराते में हर दिन दोपहर
ठीक बारह बजे आना
नमी बुलाएंगे होठों की
गला तर हो जाएगा
और मन भी
फिर देखना
वो हमारे घरों की चुप्पी टूट जाएगी
वही छोटे शहरों वाली सबको सबसे
काम लगा है की
जरूरत लौट आएगी
तुमको घर आने की चिंता नहीं
जल्दी होगी।
हमारी सोसाइटी की आबो हवा
अब नर्म होगी।
बेटा बोरोलीन तो लगाना पड़ेगा
मौसम का सूखापन
मैं तर कहाँ से करूंगी।
मैं इन छोटी छोटी
कोशिशों से तुम्हारे वजूद के
मतलब को लौटा के
दिखा दूँगी।
यही आशीर्वाद होगा माँ का।
17 अक्टूबर 2018
#प्रज्ञा