आज से बारह साल पहले लिखी एक कविता।

कहीं न कहीं मुझसे ही
मेरी बात नहीं होती वर्ना
ये उलझन
दिन रात नहीं होती।

नहीं होते ये एहसास
जिनके शब्द ही न हों,
नहीं होते ये पल
जिनमें, हम, हम ही न हों।

अंधेरे कमरे के
उस कोने में वो
बैठी अकेली
थी चीखती
अंदर ही अंदर
क्योंकि
आवाज सुन
कोई आयेगा!
शहर की भीड़ भाड़ में
जगह नहीं है
दौड़ कर कोई कहाँ जायेगा?

ऐसा कुछ न होता
जो मैं मेरे साथ ही होती
पिछले कुछ महीनों में
मुझसे मेरी मुलाकात हुई होती।
फिर ये खला दिन रात नही होती।

आज सोचा जो निकलूं
खुद को तलाश लेने
तो शब्द भटकते हैं।
कहते हैं
हम नहीं साथ उनके
जो हर लफ़्ज़ पर अटकते है।

– 04 मार्च 2006 ,12.3 AM
(दिवाली 2016 की सफाई में कुछ पन्नों से मिली।)
मैं उस वर्ष खालसा कॉलेज, दिल्ली विश्विद्यालय के द्वतीय स्नातक वर्ष के आखिरी सत्र में थी। मार्च का मतलब वार्षिक परिक्षा का महीना रहा होगा।

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