सभी औरतों को उनकी मानसिक सामाजिक स्वत्रंता के लिए समर्पित।
इस शाम रुको तुम आज यहीं
मुझको कुछ बात बतानी है
हद दिखालाने वालों को
हर रोज़ मूँह की खानी है।
मैं पीछे पीछे क्यों ताकूँ?
क्यों मूँह झेंपू बगले झांकूँ?
अब तीर कमान तो रहे नहीं
तलवार कलम की चलानी है,
हद दिखलाने वालों को
हर रोज़ मूँह की खानी है।
तुम कह दो और मैं रुक जाऊँ?
बस अंध कूप में मुक जाऊँ?
होगी फिसलन दीवारों पर
मेंढक की मौत न आनी है
हद बतलाने वालों को
हर रोज़ मूँह की खानी है।
क्यों कन्धे मेरे झुके रहें
बस नत मस्तक से टिके रहें
उठ कर अंगड़ाई ले लूं मैं
तो क्यों तुमको हैरानी है
तुम ठान लो, तो दृढ़ चित्त!
मेरी हठ मनमानी है?
क्यों डिग्री करना बहुत हुआ?
क्यों आगे पढ़ना व्यर्थ हुआ?
क्यों ना बढ़ाऊँ बेटी को?
क्योंकि कद का उसकी कोई
लड़का मिलना परेशानी है?
कद जतलाने वालों को
हर रोज़ मूँह की खानी है।
खानदान का खयाल रहे
औरत हो तुम लिहाज़ रहे
ये सब काम नहीं करते
इस जात मैं ऐसे होता है
साड़ियाँ सजाओ खिलता है
चूड़ियाँ बजाओ चलता है
और किताबें संदूक बन्द ?
औरत का बौद्धिक विकास
जिस समाज में उचरिंखलता है
नहीं वहाँ कभी कोई
बुद्धिजीवी फलता है।
लोक लाज की गठरी धर
जड़ होना नादानी है
खुद की बुलन्द करो प्रज्ञा
होने दो जिसकी हानी है।
है बुध्दि का साथ अगर
तो देश काल हर परिस्थिति
में जीत तुम्हारी होनी है!
जिनको जो कहना कहने दो
उनको ही भ्रम में रहने दो
सपनों को आँच दिखानी है,
दे ताप झोंक कर कुंदन कर
अब मत हटना पीछे डरकर
कमर सीधी कन्धे तन कर
हाँ कहने दो अभिमानी है।
जगह जगह के जालों को
उनकी जगह दिखानी है
हद दिखलाने वालों को
उनकी हद बतलानी है।
#प्रज्ञा , 12 जून 2018
बहुत बहुत अच्छी कविता
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धन्यवाद अफज़ल
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Bhot badhiya
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Dhanyawaad Jayesh
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ये महिलाओं को समर्पित कविता अच्छी है।
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