मन्नू भंडारी की त्रिशंकु पढ़ने के बाद मैं थोड़ा रुमानियत में हूँ और मुझे भी प्यार कर के विद्रोह करना है ।

मैं सोचती हूँ की सूरज अकेला ही चमकता रहता है क्योंकि उसमें अगणित हाइड्रोजन बॉम्ब फूटते रहते हैं।

पास आओ बैठो का आचरण करता तो चाँद न रह जाता।

ये मेरी खुद लिख कर खुद चहकने वाली हंसी है इसे फूटने देना ही उचित है।

बत्ती गुल होती रहती है।

आज पानी नहीं आया।
क्यों नहीं आया क्योंकि
निर्भरता थी, क्यों थी
क्योंकि समाज में ऐसे ही किया जाता है और ऐसे ही रहा जाता है।
चुप हो जाओ बहुत बिलबिला रही हो
तुम बिल्ली हो
केवल बिल्ली
खामोश
म्याऊँ करो।
क्यों?
पेड़ पे न चढूं?
बस म्याऊँ क्यूँ करूँ?
मुझे तो चढ़ना भी आता है।

अच्छा, तुम दहाडो ना
तुम्हारा तो खाना भी कोई और लाता है।

ये चल क्या रहा है!
रोमांटिक कॉमेडी
हॉरर में कैसे बदल गयी
वैसे ही जैसे कमीज़
सुबह गुलाबी से
रात को काली हो के फट गई।
लालटेन जिस पेपर
से साफ किआ
उसी की कालिख
कल मूँह पे पोत गयी
भाग गई।
आज जाने कहाँ होगी
हटाओ।
वो कितनों की
प्रेरणा होगी।

– प्रज्ञा 1 जून 2018

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